Monday, August 25, 2008

पत्ररिता कथा वाया लो प्रोफ़ाईल केस

लगभग एक सप्ताह पहले कीर्ति नगर में एक दस वर्षीय बच्चे अफारान की मौत किसी चॅनल के लिए बड़ी ख़बर नहीं बनी. उस बच्चे के साथ दो लोगों ने अप्राकृतिक यौनाचार किया. पत्रकार योगेन्द्र ने यह जानकारी देते हुए बताया, जबरदस्ती किए जाने की वजह से बच्चे की नस भींच गई. जिससे घटनास्थल पर ही बच्चे की मौत हो गई. जिन दो लोगों ने बच्चे के साथ जबरदस्ती की, वे एक फक्ट्री में मजदूरी करते हैं. अफ़रान के अब्बू भी मजदूर हैं.
योगेन्द्र के अनुसार- वह इस स्टोरी को अपने चैनल के लिए करके वापस लौटा. लेकिन स्टोरी नहीं चली. क्योंकि यह लो प्रोफाइल केस था. योगेन्द्र ने बताया, 'मेरे बॉस ने साफ़ शब्दों में कहा- 'इस ख़बर को किसके लिए चलावोगे. यह लो प्रोफाइल केस है. कौन देखेगा इसे. साथ में उन्होंने यह भी कहा, अगर बच्चे के साथ तुम्हारी बहूत सहानुभूति है तो टिकर चलवा दो. और इस संवाद के साथ उस ख़बर का भी अंत हुआ. अर्थात ख़बर रूक गई. मतलब खबरिया चॅनल भी इस बात को मानती है कि गरीब परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति गधे की तरह काम कराने के लिए और एक दिन कुत्ते की तरह मर जाने के लिए पैदा होता है. उसका कोई मानवाधिकार नहीं होता. मानवाधिकार भी अफजल जैसे हाई प्रोफाईल अपराधियों का ही होता है. अब अफरान की आरूषी से क्या तुलना?
इसी तरह एक प्रशिक्षु पत्रकार है, जिसके लिए पत्रकारिता ना ठीक तरीके से मिशन बन पाई ना ही प्रोफेशन. पत्रकारिता में वह शौक से आई है. बात थोडी पुरानी है. वह एक इलेक्ट्रोनिक चैनल के प्रतिनिधि की हैसियत से पूर्व प्रधानमंत्री विश्व नाथ प्रताप सिंह का साक्षात्कार लेने गई. वैसे साक्षात्कार कहना ग़लत होगा, वह सिर्फ़ बाईट लेने गई थी. बाईट उसे आसानी से मिल गई. उनसे विदा लेते समय उस पत्रकार ने पूछा - 'सर आप करते क्या हैं?' इसका जवाब वे क्या देते इसलिए मुस्कुरा रह गए. और ट्रेनी रिपोर्टर को अहसास हो गया कि उसने कुछ ग़लत सवाल पूछ लिया है.
आज जिस तेज रफ़्तार से टेलीविजन चैनलों का उदभव हो रहा है उससे कहीं तेज रफ़्तार से देश भर में पत्रकार बनाने के कारखाने खुल रहे हैं. क्या भोपाल और क्या पटना. सब एक सा ही हो गया है. यहाँ १० हजार से लेकर २ लाख रूपए तक लेकर बेरोजगार युवकों को पत्रकार बनाने की गारंटी दी जा रही है. वहाँ से निकल कर आ रहे प्रोडक्ट्स को ना मीडिया एथिक्स की परवाह है, ना वल्युज की. उन्हें तो संस्थान में पहला पाठ ही यही पढाया जाता है. यह सब बेकार की बातें हैं. वैसे चॅनल और अख़बार के मालिकान कौन से इन बातों को लेकर गंभीर हैं. भोपाल में रहकर पिछले तीन साल से पत्रकार की हैसियत से एक दैनिक में काम कराने वाले सज्जन ने बताया- 'आज भी घर वाले पैसा ना भेजे तो यहाँ गुजारा मुश्किल हो जाए. घर वाले पूछते हैं कि कौन सी नौकरी करते हो कि घर से पैसा मंगाना पङता है.'

ऐसे समय में पत्रकार विनय चतुर्वेदी (इन शायद रांची के किसी अखबार में कार्यरत हैं) की बातों को याद करना लाजिमी है. "आशीष, समाज में शोषण के ख़िलाफ़ लिखने वाला यह तबका सबसे अधिक शोषित है. कौन लिखेगा इनका दर्द?" शोषण शायद इसलिए भी है कि लोग शोषित होने के लिए तैयार हैं. बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में अखबार में बेगारी कराने वालों की भीड़ है. अच्छी ख़बर उत्तराँचल से. पत्रकार प्रदीप बहुगुणा कहते हैं, 'यहाँ पत्रकारों को उचित पारिश्रमिक मिल रहा है. चूंकि पहाड़ का आदमी बेगार करने को तैयार नहीं है.
वह दिन इस देश में कब आएगा. जब किसी भी राज्य में पत्रकारिता करने के लिए बेगार करने वाले पत्रकार नहीं मिलेंगे. आज बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के छोटे कस्बों में हालात यह है कि लोग पैसा देकर भी पत्रकार का तमगा हासिल करने में गुरेज नहीं करते. इन कस्बाई पत्रकारों के पास कोई प्रमाण नहीं होता कि वे अमुक अखबार में काम करते हैं. झारखंड़ में पत्ररिता कर रहे ईश्वरनाथ ने बताया, 'झारखंड में अखबार के पत्रकारों में यह कहावत बेहद प्रसिद्ध है, ख़बर छोटा हो या बड़ा, दस रुपया खड़ा.' अर्थात आप छोटी ख़बर दें या बड़ी ख़बर. आपको मिलने दस रूपए ही हैं. बेतिया (बिहार) के एक सज्जन ने बताया - 'इस शहर के पत्रकारों की कीमत है दस रुपया. ३ की पकौडी २ की चाय मनचाही ख़बर छ्पवाएं.'
ऐसा नहीं है कि हर तरफ़ यही आलम है. या फ़िर पत्रकार इन हालातों से खुश हैं. समझौता उनकी नियत नहीं है, नियति बन गई है. गोरखपुर के पत्रकार मनोज कुमार अपनी बात बताते हुए रो पड़ते हैं. 'अखबार हमें प्रेस विज्ञप्तियों से भरना पङता है. पत्रकार काम करना चाहते हैं, अच्छी खबर लाना चाहते हैं. लेकिन प्रबंधन के असहयोग की वजह से यह सम्भव नहीं हो पाता.' हरहाल आज बड़े ब्रांड के साथ काम करने की पहली शर्त यही है कि आपको उनके शर्तों पर काम करना होगा. [ashishkumaranshu@gmail.com]

9 comments:

shivraj gujar said...

bahut badiya dost. ye sab malikon ke tg matlab target group ka khel hai. is tg main bade log hi aate hain. ek raat page chhootane ke baad ek accident ki khabar aayee thi. ek tempoo ek car se takra gaya tha. do aadami mar gaye the. sab samjh rahe the car wale mare hain front page alter karne ki baat chali. jab khabar poori samne aaye to pata chala marne wale tempoo chalak or sawari thi to varisth sathion ka kahan tha are yaar ye mare hain kya under dedo kisi page per. badi muskil se us khabar ko last page per jagah mil payee.
shivraj gujar

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

Good Friend.
keep it up.

निर्मला कपिला said...

bahut khub lage raho bhai

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

आशीष जी दुनिया के यही रंग-ढंग देख कर विवेकवान लोगों को रोना आता है.....मगर ये दुनिया ऐसी ही है....तो इसे अपनी स्वाभाविक मौत ही मरना है....!!

imnindian said...

shish ji UP,Bihar,Jhadkhand walo ka problem hota hai wo ptrrakarita ko power se jodkar dekhte hai isliye bina paise ke bhi usme pile rahte hai. wo kahte hai na IPS,IAS ,neta nahi ban paye to kya unse khade ho kar prasan to kar sakte hai.bas yahi bhram uneh is peshe me banaye rakhta hai.
waise aapka lekh jabardast hai. badhai.
madhavi

कौशलेंद्र मिश्र said...

apki tippani ke liye dhnywad. patrakarita vaya low prophil ak kdwa sach hai .

VOICE OF MAINPURI said...

sahi likha dost asar hai news main.

Anita kumar said...

"शोषण शायद इसलिए भी है कि लोग शोषित होने के लिए तैयार हैं."

सब बातों की एक बात यही है। ये हाल सिर्फ़ पत्रकारों का ही नहीं हर बुद्धिजीवी वर्ग का है।

jamos jhalla said...

Good.keepitup.now try to get your photo published in the albumof respected prasun vajpai