Friday, February 4, 2011

प्रेस की स्टीकरबाजी

यदि देश भर में यह सर्वेक्षण किया जाए कि दो चक्कों और चार चक्कों वाली गाड़ियों पर सबसे अधिक कौन सा स्टीकर चिपकाया गया होता है? मेरा विश्वास है कि सबसे आगे ‘प्रेस’ ही होगा। गांवों, कस्बो, शहर और महानगर तक में आपकों बड़ी छोटी गाड़ियों पर प्रेस लिखी गाड़ियां आसानी से मिल जाएगी। कुछ लोग अपनी गाड़ी पर प्रेस लिखवाने के लिए और प्रेस लिखा परिचय पत्र पाने के लिए पैसा खर्च करने को भी तैयार होते हैं। मैंने सुना था, दिल्ली के गुरु तेग बहादुर नगर में कोई संस्था पांच सौ-हजार रुपए लेकर छह महीने-साल भर के लिए प्रेस परिचय पत्र जारी करती थी। यदि महीने में उसने पच्चीस-तीस लोगों का परिचय पत्र भी बनाया तो उसके महीने की आमदनी हो गई पन्द्रह से तीस हजार रुपए की। खैर, यहां मेरा उद्देश्य उनकी आमदनी पर बात करना नहीं है। मैं सिर्फ इतना समझना चाहता हूं कि अपनी गाड़ी पर प्रेस लिखने की ऐसी कौन सी अनिवार्यता है, जो प्रेस लिखे बिना पूरी नहीं होती। क्यों किसी गाड़ी पर ‘प्रेस’ लिखा होना चाहिए? क्या आज किसी गाड़ी पर आपने पलम्बर, हेयर डिजायनर, एक्टर, सिंगर लिखा देखा है? सिर्फ प्रेस और पुलिस जैसे कुछ पेशे वाले ही अपनी गाड़ी पर अपना परिचय लिखवाते हैं। कुछ सालों से विधायक, सांसद, जिला पार्षद लिखने की परंपरा भी शुरु हुई है। क्या यह स्टीकर सिर्फ रोड़ पर मौजूद दूसरे लोगों पर धौंस जमाने के लिए होता है। या इसकी दूसरी भी कोई उपयोगिता है। किसी गाड़ी पर एम्बुलेन्स लिखा हो तो समझ में आता है। चूंकि एम्बुलेन्स के साथ कई लोगों की जिन्दगी और मौत जुड़ी होती है। यह मामला फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के साथ भी जुड़ा है।

वैसे कुछ पत्रकार मित्र यह भी कहेंगे कि रिपोर्टिंग के लिए जाते समय वे किसी बेवजह के पचड़े में ना पड़ें इसलिए वे अपनी गाड़ी पर प्रेस का स्टीकर लगाते हैं। वरना रिपोर्टिंग के दौरान वे बेवजह देर होंगे। यह सच भी है कि एक पत्रकार अपने पाठकों और दर्शकों के प्रति जिम्मेवार होता है। उस तक खबर सही समय पर पहुंचे यह उसकी जिम्मेवारी होती है। वास्तव में विरोध प्रेस के स्टीकर से नहीं है। विरोध है, उसके दुरुपयोग से। जो लोग इस स्टीकर का बेजा इस्तेमाल करते हैं उनसे।
वास्तव में प्रेस के स्टीकर के साथ यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि व्यक्ति उस संस्था का नाम भी साथ में जरुर लिखे, जहां से वह ताल्लुक रखता है। या फिर इस तरह के नियम बनने चाहिए कि प्रेस लिखा स्टीकर अपने पत्रकारों के लिए संस्थान ही जारी करें। इससे सड़क पर प्रेस स्टीकर की अराजकता कम होगी। इसी प्रकार अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए खरीदी गई गाड़ी पर कोई व्यक्ति पुलिस का स्टीकर लगा रहा है? तो यह समझने की बात है कि इसके पिछे उसका क्या उद्देश्य हो सकता है?
इस तरह की स्टीकर बाजी पर वास्तव में कुछ नीति बननी चाहिए।

Sunday, December 27, 2009

एनडीटीवी.कॉम में चाहिए कॉपी एडिटर

आज ही एक मित्र का मेल आया. देखने के बाद लगा यह जानकारी कई और मित्रों के लिए भी उपयोगी हो सकती है. मेल जस का तस ब्लॉग पर धर रहा हूँ.
एनडीटीवी.कॉम में क्रिकेट और स्पोर्ट्स डेस्क के लिए कॉपी एडिटर और सीनियर कॉपी एडिटर की जरूरत है. इस संबंध में एनडीटीवी.कॉम ने आवेदन आमंत्रित किये है. सीनियर कॉपी एडिटर के लिए दो सालों का अनुभव होना चाहिए. वैसे फ्रेशर भी आवेदन कर सकते हैं. स्पोर्ट्स बैकग्राउंड वाले प्रत्याशियों को प्राथमिकता दी जाएगी. साथ ही ख़बरों की समझ और अंग्रेजी भाषा का अच्छी जानकारी होना भी आवश्यक है. आप अपना बायोडाटा kumudm@ndtv.com पर भेज सकते हैं.

Friday, December 11, 2009

मीडिया स्कैन का प्रभाष जोशी को समर्पित अंक


मीडिया स्कैन का यह अंक प्रभाष जोशी जी पर केन्द्रित है..
आपलोगों की प्रतिक्रया से हमारा उत्साह बढेगा.
आप अपनी रचनाएं और प्रतिक्रिया
07mediascan@gmail.com
पर भेज सकते हैं.
आप चाहें तो बात भी कर सकते हैं-
०९८९९५८८०३३

Monday, August 25, 2008

पत्ररिता कथा वाया लो प्रोफ़ाईल केस

लगभग एक सप्ताह पहले कीर्ति नगर में एक दस वर्षीय बच्चे अफारान की मौत किसी चॅनल के लिए बड़ी ख़बर नहीं बनी. उस बच्चे के साथ दो लोगों ने अप्राकृतिक यौनाचार किया. पत्रकार योगेन्द्र ने यह जानकारी देते हुए बताया, जबरदस्ती किए जाने की वजह से बच्चे की नस भींच गई. जिससे घटनास्थल पर ही बच्चे की मौत हो गई. जिन दो लोगों ने बच्चे के साथ जबरदस्ती की, वे एक फक्ट्री में मजदूरी करते हैं. अफ़रान के अब्बू भी मजदूर हैं.
योगेन्द्र के अनुसार- वह इस स्टोरी को अपने चैनल के लिए करके वापस लौटा. लेकिन स्टोरी नहीं चली. क्योंकि यह लो प्रोफाइल केस था. योगेन्द्र ने बताया, 'मेरे बॉस ने साफ़ शब्दों में कहा- 'इस ख़बर को किसके लिए चलावोगे. यह लो प्रोफाइल केस है. कौन देखेगा इसे. साथ में उन्होंने यह भी कहा, अगर बच्चे के साथ तुम्हारी बहूत सहानुभूति है तो टिकर चलवा दो. और इस संवाद के साथ उस ख़बर का भी अंत हुआ. अर्थात ख़बर रूक गई. मतलब खबरिया चॅनल भी इस बात को मानती है कि गरीब परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति गधे की तरह काम कराने के लिए और एक दिन कुत्ते की तरह मर जाने के लिए पैदा होता है. उसका कोई मानवाधिकार नहीं होता. मानवाधिकार भी अफजल जैसे हाई प्रोफाईल अपराधियों का ही होता है. अब अफरान की आरूषी से क्या तुलना?
इसी तरह एक प्रशिक्षु पत्रकार है, जिसके लिए पत्रकारिता ना ठीक तरीके से मिशन बन पाई ना ही प्रोफेशन. पत्रकारिता में वह शौक से आई है. बात थोडी पुरानी है. वह एक इलेक्ट्रोनिक चैनल के प्रतिनिधि की हैसियत से पूर्व प्रधानमंत्री विश्व नाथ प्रताप सिंह का साक्षात्कार लेने गई. वैसे साक्षात्कार कहना ग़लत होगा, वह सिर्फ़ बाईट लेने गई थी. बाईट उसे आसानी से मिल गई. उनसे विदा लेते समय उस पत्रकार ने पूछा - 'सर आप करते क्या हैं?' इसका जवाब वे क्या देते इसलिए मुस्कुरा रह गए. और ट्रेनी रिपोर्टर को अहसास हो गया कि उसने कुछ ग़लत सवाल पूछ लिया है.
आज जिस तेज रफ़्तार से टेलीविजन चैनलों का उदभव हो रहा है उससे कहीं तेज रफ़्तार से देश भर में पत्रकार बनाने के कारखाने खुल रहे हैं. क्या भोपाल और क्या पटना. सब एक सा ही हो गया है. यहाँ १० हजार से लेकर २ लाख रूपए तक लेकर बेरोजगार युवकों को पत्रकार बनाने की गारंटी दी जा रही है. वहाँ से निकल कर आ रहे प्रोडक्ट्स को ना मीडिया एथिक्स की परवाह है, ना वल्युज की. उन्हें तो संस्थान में पहला पाठ ही यही पढाया जाता है. यह सब बेकार की बातें हैं. वैसे चॅनल और अख़बार के मालिकान कौन से इन बातों को लेकर गंभीर हैं. भोपाल में रहकर पिछले तीन साल से पत्रकार की हैसियत से एक दैनिक में काम कराने वाले सज्जन ने बताया- 'आज भी घर वाले पैसा ना भेजे तो यहाँ गुजारा मुश्किल हो जाए. घर वाले पूछते हैं कि कौन सी नौकरी करते हो कि घर से पैसा मंगाना पङता है.'

ऐसे समय में पत्रकार विनय चतुर्वेदी (इन शायद रांची के किसी अखबार में कार्यरत हैं) की बातों को याद करना लाजिमी है. "आशीष, समाज में शोषण के ख़िलाफ़ लिखने वाला यह तबका सबसे अधिक शोषित है. कौन लिखेगा इनका दर्द?" शोषण शायद इसलिए भी है कि लोग शोषित होने के लिए तैयार हैं. बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में अखबार में बेगारी कराने वालों की भीड़ है. अच्छी ख़बर उत्तराँचल से. पत्रकार प्रदीप बहुगुणा कहते हैं, 'यहाँ पत्रकारों को उचित पारिश्रमिक मिल रहा है. चूंकि पहाड़ का आदमी बेगार करने को तैयार नहीं है.
वह दिन इस देश में कब आएगा. जब किसी भी राज्य में पत्रकारिता करने के लिए बेगार करने वाले पत्रकार नहीं मिलेंगे. आज बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के छोटे कस्बों में हालात यह है कि लोग पैसा देकर भी पत्रकार का तमगा हासिल करने में गुरेज नहीं करते. इन कस्बाई पत्रकारों के पास कोई प्रमाण नहीं होता कि वे अमुक अखबार में काम करते हैं. झारखंड़ में पत्ररिता कर रहे ईश्वरनाथ ने बताया, 'झारखंड में अखबार के पत्रकारों में यह कहावत बेहद प्रसिद्ध है, ख़बर छोटा हो या बड़ा, दस रुपया खड़ा.' अर्थात आप छोटी ख़बर दें या बड़ी ख़बर. आपको मिलने दस रूपए ही हैं. बेतिया (बिहार) के एक सज्जन ने बताया - 'इस शहर के पत्रकारों की कीमत है दस रुपया. ३ की पकौडी २ की चाय मनचाही ख़बर छ्पवाएं.'
ऐसा नहीं है कि हर तरफ़ यही आलम है. या फ़िर पत्रकार इन हालातों से खुश हैं. समझौता उनकी नियत नहीं है, नियति बन गई है. गोरखपुर के पत्रकार मनोज कुमार अपनी बात बताते हुए रो पड़ते हैं. 'अखबार हमें प्रेस विज्ञप्तियों से भरना पङता है. पत्रकार काम करना चाहते हैं, अच्छी खबर लाना चाहते हैं. लेकिन प्रबंधन के असहयोग की वजह से यह सम्भव नहीं हो पाता.' हरहाल आज बड़े ब्रांड के साथ काम करने की पहली शर्त यही है कि आपको उनके शर्तों पर काम करना होगा. [ashishkumaranshu@gmail.com]

Wednesday, June 4, 2008

रफ़्तार ड़ॉट कॉम एक परिचय

पिछले कुछ महीनों में इंटरनेट जगत में हिंदी की पैठ बहुत तेजी से बढ़ी है। दर्जनों नयी वेबसाइट, हजारों नये ब्लॉग के साथ भारी संख्या में हिंदी प्रेमी लोग, लेखक, विचारक, पत्रकार और देश–विदेश के मीडिया समूह इंटरनेट पर हिंदी के इस नये उभार के साथ तेजी से जुड़ते जा रहे हैं। रफ़्तार इन सभी प्रयासों को साझा मंच प्रदान करने तथा हर हिंदीभाषी को इंटरनेट के नये संसार से जोड़ने की सबसे उन्नत तथा अनूठी पहल है
समूचे हिंदी जगत को यदि किसी एक ही साइट पर खंगाला जा सकता है तो वह है रफ्तार डॉट इन। रफ्तार के माध्यम से हिंदी इंटरनेट के अथाह जगत की संपूर्ण गतिविधियों तक सरलता से पहुंचा जा सकता है। इंटरनेट यूजर की जरूरतों और पसंद के साथ रफ्तार ने तारतम्य बिठाया है और इसी के तहत गानों, समाचार, ब्लॉग, मनोरंजन और साहित्य की खोज को रफ्तार में प्रमुखता दी गई है।
रफ़्तार डॉट इन (www.raftaar.in) की अनेकों विशेषताओं में से प्रमुख है कि यह हिंदी का पहला संपूर्ण सर्च इंजन है। एक ऐसा सर्च इंजन जो इंटरनेट उपभोक्ता को हिंदी के असीमित संसार से जोड़ता है। समाचार से ले कर साहित्य तक एवं विज्ञान से ले कर किचन तक, रफ़्तार डॉट इन (www.raftaar.in) इंटरनेट पर मौजूद हिंदी का सारा कंटेट आपको उपलब्ध करवाता है।
सर्च इंजन के अलावा रफ़्तार डॉट इन (www.raftaar.in) पल–पल की घटनाएं और खबरें एक साथ एक होमपेज पर आपको मुहैया करवाता है। देश, दुनिया, खेल, कारोबार, विचित्र, जुर्म, साहित्य, देसी–विदेशी फिल्मी दुनिया से संबंधित समाचार अब देश की राष्ट्रभाषा में एक क्लिक की दूरी पर हैं।
इस पहल के कर्ताधर्ता हैं विख्यात अर्थशास्त्री और कंपनी के चेयरपर्सन डॉक्टर लवीश भंडारी एवं रफ़्तार डॉट इन (www.raftaar.in) के निदेशक और सह संस्थापक पीयूष बाजपेई। डॉक्टर लवीश का कहना है, ''रफ़्तार उस कस्बाई व्यक्ति की जरूरतों को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है जो अंग्रेज़ी नहीं जानता मगर इंटरनेट का प्रयोग करना चाहता है।'' कहते हैं पीयूष, ''रफ़्तार युवाओं को ध्यान में रख कर बनाया गया है जो सूचना और मनोरंजन के असीमित संसार से अपनी भाषा में जुड़ना चाहता है। संभवतः यही वजह है कि इसमें मनोरंजन और जीवनशैली को खास तवज्जो दी गई है।'' पीयूष के अनुसार, भविष्य में इसमें किए जाने वाले बदलाव भी इंटरनेट प्रयोग करने वाले की अभिरुचि एंव जरूरत के अनुसार ही किए जांएगे।
इंटरनेट जगत में हिंदी में मौजूद सभी राशियों का राशिफल एक साथ यहां पढ़ सकते हैं। नए और पुराने, सभी तरह के गानों, के अलावा तस्वीरों (फोटो) संबंधी आपकी खोज यहां आ कर पूर्ण हो जाती है।
हिंदी इंटरनेट जगत का नया प्रयोग यानी ब्लॉगिंग को यहां विशेष स्थान दिया गया है। रफ़्तार के होमपेज का एक महत्वपूर्ण कोना सिर्फ ब्लॉगिंग को समर्पित है।
कारोबार और बाजार पर हिंदी का बढ़ता असर यहां भी दिखाई दे रहा है। इसीलिए, कारोबार और शेयर बाजार की खबरों के अतिरिक्त सेंसेक्स सूचकांक को भी यहां प्रमुखता से जोड़ा गया है।
दरअसल, रफ़्तार आगाज है इंटरनेट पर अंग्रेजी के एकाधिकार की समाप्ति का। अब समय आ गया है कि हम इंटरनेट से अपनी भाषा में अपनी आवश्यकताएं पूरी कर सकें!

विशेष जानकारी के लिए आप फोन कर सकते हैं- 011-42512400